कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
पाप के चार हथियार !
जार्ज बर्नार्ड शॉ का एक पैराग्राफ़ पढ़ा है। वह उनके अपने ही सम्बन्ध में है, “मैं खुली सड़क पर कोड़े खाने से इसलिए बच जाता हूँ कि लोग मेरी बातों को दिल्लगी समझकर उड़ा देते हैं। बात यूँ है कि मेरे एक शब्द पर भी वे गौर करें तो समाज का ढाँचा डगमगा उठे।"
"वे मुझे बरदाश्त नहीं कर सकते, यदि मुझ पर हँसे नहीं। मेरी मानसिक और नैतिक महत्ता लोगों के लिए असहनीय है। उन्हें उबाने वाली खूबियों का पुंज लोगों के गले के नीचे कैसे उतरे? इसलिए मेरे नागरिक बन्धु या तो कान पर उँगली रख लेते हैं या बेवकूफ़ी से भरी हँसी के अम्बार के नीचे ढंक देते हैं मेरी बात।"
शॉ के शब्दों में अहंकार की पैनी धार है, यह कहकर हम इन शब्दों की उपेक्षा नहीं कर सकते; क्योंकि इनमें संसार का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण सत्य कह दिया गया है।
संसार में पाप है जीवन में दोष, व्यवस्था में न्याय है व्यवहार में अत्याचार और इस तरह समाज पीड़ित और पीड़क के वर्गों में बँट गया है। सुधारक आते हैं, जीवन की इन विडम्बनाओं पर घनघोर चोट करते हैं। विडम्बनाएँ टूटती-बिखरती नज़र आती हैं, पर हम देखते हैं कि सुधारक चले जाते हैं और विडम्बनाएँ अपना काम करती रहती हैं।
आखिर इसका रहस्य क्या है कि संसार में इतने महान् पुरुष, सुधारक, तीर्थंकर, अवतार, सन्त और पैगम्बर आ चुके, पर यह संसार अभी तक वैसा का वैसा ही चल रहा है। इसे वे क्यों न बदल पाये? दूसरे शब्दों में जीवन के पापों और विडम्बनाओं के पास वह कौन-सी शक्ति है, जिससे वह सुधार के इन शक्तिशाली आक्रमणों को झेल जाते हैं और टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर नहीं जाते?
शॉ ने इसका उत्तर दिया है कि मुझ पर हँसकर और इस रूप में मेरी उपेक्षा करके वे मुझे सह लेते हैं। यह मुहावरे की भाषा में सिर झुकाकर लहर को ऊपर से उतार देना है।
शॉ की बात सच है, पर यह सचाई एकांगी है। सत्य इतना ही नहीं है। पाप के पास चार शस्त्र हैं, जिनसे वह सुधार के सत्य को जीतता या कम-से-कम असफल करता है। मैंने जीवन का जो थोड़ा-बहुत अध्ययन किया है उसके अनुसार पाप के यह चार शस्त्र इस प्रकार हैं :
उपेक्षा, निन्दा, हत्या और श्रद्धा।
सुधारक पापों के विरुद्ध विद्रोह का झण्डा बुलन्द करता है तो पाप और उसका प्रतिनिधि पापी समाज उसकी उपेक्षा करता है, उसकी ओर ध्यान नहीं देता और कभी-कभी कुछ सुन भी लेता है तो सुनकर हँस देता है, जैसे वह किसी पागल की बड़ हो, प्रलाप हो। इन क्षणों में पाप का नारा होता है, “अरे, छोड़ो इसे और अपना काम करो।"
सुधारक सत्य उपेक्षा की इस रगड़ से कुछ तेज़ होता जाता है, उसके स्वर अब पहले से कुछ पैने हो जाते हैं और कुछ ऊँचे भी।
अब समाज का पाप विवश हो जाता है कि वह सुधारक की बात सुने। वह सुनता है और उस पर निन्दा की बौछारें फेंकने लगता है। सुधारक सत्य और समाज के पाप के बीच यह गालियों की दीवार खड़ी करने का प्रयत्न है। जीवन के अनुभवों की साक्षी है कि सुधारक के जो जितना समीप है, वह उसका उतना ही बड़ा निन्दक होता है। यही कारण है कि सुधारकों को प्रायः क्षेत्र बदलने पड़े हैं। मुहम्मद को मक्का से मदीना इसीलिए तो जाना पड़ा था !
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में